श्षाक एवं सब्जियों की जैविक खेतीश्
डा0 प्रमिला गुप्ता
यश कृषि तकनीकी एवं विज्ञान केन्द्र इलाहाबाद
प्रोफेसर एमिरीटस
इलाहाबाद कृषि संस्थान इलाहाबाद।
सब्जियाँ षरीर की वृद्धि, प्रजनन एवं स्वास्थ्य के लिए आवष्यक पोशक तत्व एवं खनिज लवण का स्रोत है। सब्जियों में अधिक मात्रा में विटामिन्स, खनिज पदार्थ, कार्बोहाइड्रेट्स एवं प्रोटीन आदि पाये जाते हैं। मनुश्य के भोजन मेें इसकी पर्याप्त मात्रा न होने से अनेक रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है।
भारत देष में, जहाँ पर अधिक जनता षाकाहारी है, सब्जियों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। इतना होते हुए भी हमारे देष में अन देषों की तुलना में सब्जियों का उपभोग बहुत कम होता है। उदाहरण के लिए भारत में सब्जियाँ भोजन में केवल 8-10 प्रतिषत होती है, जबकि जापान में 40-45 प्रतिषत होती है।
भारत का विष्व में सब्जी उत्पादन में चीन के बाद दूसरा स्थान है। पिछले दो दषकों में देष में सब्जी उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन आज भी हमारा देष विभिन्न सब्जियों की उत्पादकता व गुणवत्ता में विष्व के अन्य विकसित व विकासषील देषों से काफी पिछड़ा हुआ है। सब्जी की गुणवत्ता में कमी का मुख्य कारण कृशकों द्वारा अन्धाधुन्ध रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाषकों का प्रयोग है। अन्धाधुन रासायनों के प्रयोग से रसायन अवषेश सब्जियों पर उपस्थित रहता है, जो कि भोजन के माध्यम से मानव षरीर में प्रवेष कर विभिन्न प्रकार की रोग एंव व्याधियों का कारण बनता है। यही नहीं रासायनों के अधिकाधिक प्रयोग से वातावरण में भी इनकी बढ़ती उपस्थिति मानव सहित समस्त जीवधारियों के लिए संकट का कारण बनता जा रहा है। उपर्युक्त समस्याओं को ध्यान में रखते हुए एवं गुणवत्ता युक्त षाक-सब्जियाँ उपलब्ध कराने के लिए आज जैवक खेती को अपनाना देष के कृशकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। जैविक खेती द्वारा निष्चित रूप से सब्जियों की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है तथा साथ ही भूमि िकी उर्वरता एवं उत्पादकता को भी बढ़ाया जा सकता है।
जैविक खेती एवं इसका महत्व
जैविक खेती, की वह पद्धति है जिसमें फसलों का उत्पादन केवल जैविक पदार्थों एवं विधियों को अपनाकर किया जाता है। इसमें किसी भी प्रकार के संष्लेशित व रासायनिक पदार्थों का प्रयोग नहीं किया जाता है। जैविक विधि से सब्जियों को उगाने से उन पर किसी प्रकार के रासायन अवषेश के होने का खतरा नहीं होता है, जिससे किसी प्रकार के प्रदूशण की सम्भावना नहीं होती है। जैविक विधि से उत्पादित सब्जियों का बाजार मूल्य भी अधिक मिलता है जिससे इनके निर्यात की सम्भावनाएँ भी बढ़ती है।
जैविक खेती से लाभ –
1. जैविक खेती को अपनाकर कृशि लागत को कम किया जा सकता है क्योंकि जैव खाद, उर्वरक एवं जीवनाषी, रासायनिक उर्वरकों एवं जीवनाषियों की अपेक्षा काफी सस्ते होते हैं।
2. जैविक खेती से किसी प्रकार के वातावरण प्रदूशण का कोई खतरा नहीं होता है।
3. जैविक उत्पाद स्वादिश्ट होते हैं क्योंकि इनमें रसायन का कोई अवषेश नहीं होता है।
4. जैविक विधि से की गयी कृशि टिकाऊ होती है क्योंकि इसमें भूमि में लाभदायक सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ती है, साथ ही भूमि की उर्वरा षक्ति भी बढ़ती है।
5. जैविक खेती से भूमि की संरचना में सुधार होता है, जिससे भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है फलस्वरूप सिंचाई के रूप में लागत कम हो जाती है।
6. भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है।
7. जैविक उत्पादों का बाजार मूल्य अधिक मिलता है जिससे प्रति इकाई भूमि की उत्पादकता में वृद्धि होती है।
जैविक विधियों द्वारा पोशक तत्व प्रबंधन –
(1) जैविक खाद –
1. हरी खाद: सनई, ढैंचा, मूंग, तिल
2. गोबर की खाद,कम्पोस्ट,वर्मी कम्पोस्ट (केचुआ खाद),नाडैप कम्पोस्ट आदि।
केचुआ खाद बनाने की विधि –
सर्वप्रथम 5-7 फुट ऊँचाई के षेड बनाते हैं ताकि छाया व उपयुक्त तापमान बना रहे। भूमि में 10 फुट लम्बी, 3 फुट चैड़ी व 18 इंच गहरी क्यारी बनाते हैं। क्यारी में तिनके, भूसा, जूट एवं कृशि अपषिश्ट पदार्थ को फैला देते हैं।
पहली परत में कृशि अपषिश्ट पदार्थ व गोबर की खाद फैलाकर उस पर परनी का छिड़काव पर दूसरी सूखी कम्पोस्ट या गोबर की दो इंच मोटी परत फैलाकर उस पर पुनः परी छिड़कते हैं। गोबर को ढक देते हैं बनायी गयी ढेरी में केचुओं को डालकर ढक देते हैं तथा 40 प्रतिषत नमी बनाये रखते हैं। लगभग दो माह में ढेरी का रंग काला हो जाता है एवं महक आने लगती है और खाद तैयार हो जाती है। तैयार खाद को तार से बने छन्ने से छानकर केचुए अलग कर खाद को प्रयोग कर लेते हैं तथा केचुओं को पुनः क्यारी में डालकर उपर्युक्त विधि से खाद तैयार करते रहेत हैं।
जैव उर्वरक –
इस विधि में प्रकृति में पाये जाने वाले विभिन्न सूक्ष्म जीवों का प्रयोग कर जैव उर्वरक तैयार किये जाते हैं।
जैव उर्वरक के प्रकार –
(1) एजेटाबैक्टर – यह एक प्रकार का जीवाणु है जो कि भूमि में स्वतन्त्र रूप से रहकर वायुमण्डल की नाइट्रोजन को षोशित कर नाइट्रेट में बदल देता है जो कि पौधे भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं।
(2) राइजोवियम – यह एक प्रकार का जीवाणु है जो दलहनी फसलों की जड़ों में पायी जाने वाली गांठों में सहजीवी रूप में पाया जाता है। तथा वायुमण्डल की नाइट्रोजन को षोशित कर पौधों को उपलब्ध कराता है।
(3) फास्फेट सोल्युविलाइजर -यह जीवाणु भूमि में उपस्थित फास्फोरस को घोल के रूप में परिवर्तित कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं जिससे पौधों के लिए आवष्यक फास्फोरस की मात्रा की आपूर्ति होती है।
(4) पोटाष मोविलाइजर – यह एक प्रकार के जीवाणुओं का समूह होता है। जो कि भूमि में उपस्थित पोटैषियम को चलायमान कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं, जिससे पोटाष की आपूर्ति होती है।इसी तरह सूक्षम तत्वों को भी उपलब्ध कराने वाले बहुत से जीवाणु सूक्ष्म तत्वों की आूर्ति करते हैं। जैसे – जिंस, मैगनीज, सलफर आदि। जैव उर्वरकों के प्रयोग से 25-30 प्रतिषत रसायन उर्वरकों की मात्रा को प्रत्येक वर्श घटाकर लगभग 4-5 वर्श में पूर्ण रूप से जैविक खेती को अपनाया जा सकता है।
प्रयोग विधि –
मृदा उपचार – सूक्ष्म जीवों से तैयार सभी प्रकार के जैव उर्वरकों की 2.5 किलो ग्राम मात्रा को 50 किलो ग्राम गोबर का सड़ी खाद में अच्छी तरह मिलाकर उसे 30 दिन तक ढककर रख देते हैं। तथा नमी बनाये रखते हैं एवं 7-8 दिन पर इसे पलटते रहते हैं। लगभग एक माह बाद इस खाद को आवष्यकतानुसार गोबर की खाद मेें मिलाकर एक एकड़ में प्रयोग करते हैं।
बीच उपचार – 10 मिली0 ली0 या 10 ग्राम जैव उर्वरक को प्रतिकिलो ग्रा0 बीज की दर से आवश्यक परनी के साथ मिलायं एवं 15-20 मिनट छाये में सुखाकर बीच की बुवाई करें।
जैविक विधियों द्वारा कीट एवं रोग प्रबंधन –
1. एच.ए. एवं एस.एल.एन. पी.वी. – यह एक प्रकार का विशाणु है जो कि विभिन्न प्रकार के तना बेधक, फल बेधक एवंज ड़ बेधक कीटों की सूड़ियों को नियंत्रित करता है।
2. एच.ए.एन.पी.वी. – चना फली बेधक, टमाटर फल बेधक, कपास बाल बेघक आदि।
3. एस.एल.एन.पी.वी. – यह स्पोडोप्टेरा लिटूरा कीट की सूड़ी को मारने के लिए प्रयोग किया जाता है।
प्रयोग विधि -250 सूड़ी अर्क प्रति हे. की दर से 3-4 छिड़काव सप्ताह के अन्तराल पर करना चाहिए। उपरोक्त जीवनाषी को 300 ग्रा. गुड़, 60 मिली. ली. तरल साबुन, 600 लीटर परनी का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
(2)ट्राइकोकार्ड -यह ट्राइकोग्राम नामक अण्डपरजीवी कीटनाषी है। इसके प्रयोग से 80-90 प्रतिषत कीटों को नियंत्रित किया जा सकता है। यह बैगन, भिण्डी, गन्ना इत्यादि फसलों में लगने वाले फलबेधक, तनाबेधक कीटों के नियंत्रण हेतु प्रयोग करते हैं।
प््रायोग विधि – एक एकड़ में लगभग 12-15 कार्ड पत्ती की निचली सतह पर उल्टा करके स्टेपलर द्वारा लगा दिया जाता है तथा 15 दिन के अन्तराल पर ट्राइकोकार्ड को बदलते रहना चाहिए।
(3) विवेरिया वैसियाना – यह एक फफूंद है जो कि हारिकारक कीटों के नियंत्रण हेतु प्रयोग होता है। यह कीटों जैसे – दीमक, सफेद, ग्रब, तनाबेधक आदि के लिए प्रभावी है।
प्रयोग विधि – एक किलो ग्राम विवेरिया वैसियाना को 50 किलो ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर प्रति हे. प्रयोग करें।
बीज उपचार – 10 ग्राम विवेरिया प्रति किलो बीच की दर से उपचारित कर बोना चाहिए।
छिड़काव – 2.5 किलो विवेरिया पाउडर 800-1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
(4) ट्राईकोडर्मा – यह एक प्रकार की फफूंद है जो रोग उत्पन्न करने वाली अन्य फफूंद को नश्ट करता है। यह विभिन्न फसलों में लगने वाले जड़, गलन, झुलसा, उकठा आदि रोगों के लिए प्रभावी है।
प्रयोग विधि – एक किलो ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को 50 किलो ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर प्रति हे. प्रयोग करें।
बीच उपचार – 5-10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति किलो बीच की दर से प्रयोग करें।
छिड़काव – 2.5 किलोग्राम टाइकोडर्मा पाउडर 800-1000 लीटर पानी के घोल का प्रयोग करें।
(5) स्यूडोमोनास –
यह एक प्रकार का जीवाणु है जो फफूंद जनित रोगों के नियंत्रण हेतु प्रयोग किया जाता है। यह सब्जियों में लगने वाले रोगों जैसे – जड़ गलन, फल सड़न, झुलसा तना गलन आदि रोगों के लिए प्रभावी है।
प्रयोग विधि –
बीच उपचार – 5-10 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम बीच की दर से उपचारित कर बुआई करें।
छिड़काव – 2.5 किलो ग्राम पाउडर 800-1000 लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें।
मृदा उपचार – 1 किलोगा्राम या 500 मिली. ली दवा को 50 किलो ग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर प्रयोग करें।