चने मटर की फसलों में सामयिक कृषि कार्य
भारतवर्ष में दलहनी फसलों की महत्ता को किसान आदिकाल से पहचानता है तथा विश्व में कुल क्षेत्रफल का 37 प्रतिशत तथा कुल उत्पादन का 28 प्रतिशत दलहन भारतवर्ष में होता है।जहा विश्व के कुल उत्पादन का 70 प्रतिशत चना तथा मटर भारतवर्ष में पैदा होता है। वही दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के कीटों रोगों के दुष्प्रभाव से प्रतिवर्ष फसलों में भारी नुकसान उठाना पड़ता है।
चना मटर के प्रमुख कीट तथा नियंत्रण
1ण् फलीछेदक कीट:
दलहनी फसलों में चना फली छेदक कीट प्रमुख है। यह एक बहुभक्षी कीट है और प्रमुख रूप से यह चने मटर का कीट है। इस कीट द्वारा साधारणतया 20 से 30 प्रतिशत तक हानि होती है लेकिन जब इसका प्रकोप अधिक होता है तो 80 से 90 प्रतिशत तक फसल नष्ट हो जाती है।
हानि: इस कीट की सूड़िया पौधे व पत्तियों के मुलायम भागों को ही खाती हैं। तथा फलियांें पर आक्रमण करके उन्हे क्षतिग्रस्त कर देती हैं।ये इल्लियां अपना सिर फलियों के अन्दर कर दानों को खाती हैं और शरीर का शेष भाग बाहर रहता है।
कीट नियंत्रण
फेरोमोन ट्रेप का प्रयोगः
इस जाल में मादा कीट की कृतिम गन्ध रख दी जाती है जिससे पतंगे आकर्षित होकर फॅस जाते हैं। जनवरी-फरवरी के महीने में यदि 4-6 पतंगे लगातार फॅसते रहते हैं तो इस कीट के प्रकोप की एक पखवाड़े के बाद फसल के कीटग्रस्त होने की सम्भावना अधिक रहती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिये 5-6 यौन आक्रर्षण जाल निगरानी के लिये पर्याप्त हैं। फली छेदक कीट प्रबन्धन के लिये 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाये । इन फेरोमोन ट्रेप्स को 25 से 20 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए।
ऽ एन0पी0वी0 का प्रयोगः वातावरण में एक प्रकार का विषाणु न्यूक्लियर पाॅली हाईड्रोसिस वायरस) पाया जाता है। यह विषाणु भोजन के साथ सूड़ियों के अन्दर जाता है। इस रोग के लगने के कारण सूड़ी उल्टा लटक कर या गिर कर 2-3 दिन में मर जाती है। इन मृत सूड़ियों को एकत्रित कर पुनः पीस कर फली छेदक कीट के नियंत्रण के लिये प्रयोग कर सकते हैं। इस रोग से ग्रसित मृत 250 एल0ई0 हैलिकोवर्पा एन0पी0वी0 को आवश्यक पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से जब 2 या 3 सूड़ी प्रति पौधे दिखाई पड़ंे उस समय छिड़काव करना चाहिए। यह छिड़काव 7-10 दिन के अन्तराल पर दो-तीन बार जब खेत में सूड़ी अधिक संख्या में हो करना लाभप्रद होता है। इसके साथ ही साथ गुड़ एवं 40 ग्राम कपडे़ धोने का पाऊडर मिला देनें से एन0पी0वी0 पत्तियों की सतह पर अच्छी तरह चिपक जाती है।
ऽ बी.टी. का प्रयोगः बी.टी. का छिडकाव 500ग्रा. प्रति हे0 की दर से करें।
ऽ ट्राइकोग्रामा अण्ड परजीवी का प्रयोगः ट्राइकोग्रामा अण्ड परजीवी द्वारा फलीछेदक कीट का नियंत्रण करें। 50 हजार ट्राइकोग्रामा अण्ड परजीवी प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
ऽ नीम की निबौली का प्रयोगः नीम की निबौली का शत फली छेदक कीट के नियंत्रण के लिये काफी लाभकारी है। एक किलोग्राम हाथ की कुचली हुई नीम की निबौली की गिरी को मल-मल के पतले कपड़े में बाॅधकर 20 लीटर पानी में भिगोकर रात भर के लिये रख देंते हैं। प्रातः निबौली को दबा-दबा कर उसी पानी में निचोड़ लेते हैं तथा निबौली के कठोर भाग को फेंक देतें हैं। इस प्रकार 20 लीटर घोल तैयार हो जाता है। उपर्युक्त विधि से 20 किलोग्राम निबौली को 400 लीटर पानी में 1 हे0 क्षेत्रफल के छिड़काव हेतु घोल तैयार करते हैं इसमें 250 ग्राम कपडे़ धोने का पाऊडर मिला देते हैं, फिर मशीन के द्वारा छिड़काव करते हैं।
ऽ जैव जीव रसायन का प्रयोग- बिवेरिया बैसियाना का छिडकाव 2500ग्रा. प्रति हे0 की दर से करें।
कीट रसायनों का प्रयोगः
फली छेदक कीट की आर्थिक सीमा औसतन 1 मीटर लम्बी कतार के पौधों में सूड़ियों की संख्या 1-2 हों तों फली छेदक कीट का नियंत्रण कीट रसायनों द्वारा अवश्य करना चाहिए। चना फलीछेदक कीट के नियंत्रण के लिए इण्डोसल्फान की 1.5 ली0 या क्यूनोलफास 25 ई0सी0 की 1.25 ली0 दवा को आवश्यक पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए यदि फिर भी आवश्यकता हो तो साईपरमैथरिन 10 ई0सी0 की 500 मि0ली0 दवा को आवश्यक पानी में मिलाकर प्रति हे0 की दर से छिड़काव करना चाहिए।
2. कटवर्म (एगराटिस इपसीलान):
यह एक बहुमुखी कीट है जो आलू एवं अन्य सालोनेसियस परिवार के पौधे तथा कपास एवं दलहनी फसलों पर आक्रमण करता है। ये गिडारें दिन में मिट्टी के अन्दर छिपी रहती है।
हानि: यह कीट पौधों की पत्तियों को खाते है और उन्हें भूमि की सतह से काटकर नष्ट कर देते हंै। यह कीट जितने पौधे की पत्तियां खाते है उससे ज्यादा पौधों को काटकर नष्ट करते है।
कीट नियंत्रण
नीम की निबौली का प्रयोगः
जैव जीव रसायन का प्रयोग- बिवेरिया बैसियाना का छिडकाव 2500ग्रा. प्रति हे0 की दर से करें।

3. दीमक:
यह बहुभक्षी कीट है जो सफेद मटमैले रंग का होता है। ये जमीन की सतह के अन्दर या टीले बनाकर रहते है। फसल को ज्यादा क्षति श्रमिक कीट द्वारा होती है तो जड़ या तनों को खाकर उन्हे क्षति पहुॅचाते है।
जैव जीव रसायन का प्रयोग- बिवेरिया बैसियाना का छिडकाव 2500ग्रा. प्रति हे0 की दर से करें।

4. सेमीलूपर (प्लूसिया ओरिकेल्सिया):
इनकी सूंड़ियां हरे रंग की होती हैं जो पीठ को ऊपर उठाकर अर्थात अर्द्धलूप बनाती हुई चलती है। इसी कारण इसे सेमीलूूपर कहा जाता है। ये पत्तियों को कुतरकर खाती है।
जैव जीव रसायन का प्रयोग- बिवेरिया बैसियाना का छिडकाव 2500ग्रा. प्रति हे0 की दर से करें।
नीम की निबौली का प्रयोगः
कीट रसायनों का प्रयोगः
सेमीलूपर कीट की आर्थिक सीमा औसतन 5 सूड़ियाॅ प्रति वर्ग मीटर हों सेमीलूपर कीट का नियंत्रण कीट रसायनों से अवश्य करना चाहिए। सेमीलूपर कीट के नियंत्रण के लिए इण्डोसल्फान की 1.5 ली0 या क्यूनोलफास 25 ई0सी0 की 1.25 ली0 दवा को आवश्यक पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए

चने के प्रमुख रोग
1. उकठा (फ्यूजेरियम ऊडम):
इस बीमारी के लगने से पौधे मुरझाकर सूख जाते है। यदि प्रभावित पौधे की जड़ को बीच से चीरकर देखा जाय तो अन्दर का रंग काला या भूरा दिखाई देता है। इस रोग के प्रकोप से पूरी की पूरी फसल नष्ट होते देखा गया है। इसकी आर्थिक सीमा में 5-10 प्रतिशत पौधे रोग से ग्रसित होते हैं।
2. झुलसा एस्कोकाइटा ब्लाइट:
यह फफंूद जनित रोग है। रोग के लक्षण फूल निकलने के पूर्व पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देते है। इसके साथ फूलों पर भी गहरे भूरे धब्बे बनकर उसे सुखा देते है। जिससे फलियाॅ बनती ही नही या सूख जाती है।
झुलसा एस्कोकाइटा ब्लाईट के नियंत्रण हेतु जिंक मैगनीज कार्बामेट 2 किलोग्राम अथवा जीरम 80ः
2 किलोग्राम प्रति है, की दर से छिड़काव करना चाहिए।
3. तना गलन (स्टेम राट) व जड़ सड़़न (रूट राट):
तना और शाखाओं पर लम्बे भूरे धब्बे जिनके अन्दर काले रंग के स्केलरोशिया (धारियाॅं) पाई जाती है। जड़ सड़न रोग में पौधा ऊपर से नीचे की ओर सूखता है। पहले पत्तियंा सफेद हरी कुछ समय बाद पीली पड़ जाती हैं अन्त में गिर जाती है। पौधे का कालर रीजन गहरा भूरा हो जाता है। जड़ सड़न रोग की आर्थिक सीमा स्तर 5-10 प्रतिशत पौधे रोग से ग्रसित होतें हैं।
झुलसा एस्कोकाइटा ब्लाईट के नियंत्रण हेतु जिंक मैगनीज कार्बामेट 2 किलोग्राम अथवा जीरम 80ः
2 किलोग्राम प्रति है, की दर से छिड़काव करना चाहिए।

खरपतवार
चने के खेत में कई प्रकार के खरपतवार पाये जाते हैं जिनमें से प्रमुख खरपतवार दूबघास, प्याजी, बथुआ, हिरनखुरी इत्यादि हैं, यदि इनको समय से प्रबन्धन न किया जाये तो निश्चित ही पैदावार में 50 से 60 प्रतिशत तक कमी आ जाती है।
खरपतवार का प्रबन्धनः बुवाई के 25-30 दिन बाद एक निकाई करने से काफी हद तक खरपतवारों को कम किया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में मजदूरों की समस्या है उन क्षेत्रों के लिये बुवाई के तुरन्त बाद 36 घण्टें के अन्दर) 1.00 से 1.25 किलोग्राम पेन्डीमैथालीन 30 ई.सी. को 600-700 ली0 पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना लाभप्रद होता है।
ऽ चने में फूल आते समय सिंचाई न करें ।
मटर की फसल में सामयिक कृषि कार्य
प्रदेशों में उत्तर प्रदेश का स्थान प्रथम है जहाॅ मटर के कुल क्षेत्रफल का 55 प्रतिशत तथा कुल उत्पादन का 71 प्रतिशत अंश है।
मटर में लगने वाले प्रमुख कीट , रोग व उनका प्रबन्धनः
1. तना मक्खी कीटः
शस्य क्रियायें
समय से बुवाई करने से इस कीट का प्रकोप कम होता है। अक्टूबर माह में बुवाई करने से इस कीट का प्रकोप अधिक होता है। लगातार दलहनी फसलें एक ही खेत में लेने पर इस कीट का प्रकोप होता है। अतः फसल चक्र अपनाते रहना चाहिए।
यांत्रिक क्रियायेंः
फसल में निराई-गुड़ाई करना भी लाभदायक पाया गया है। प्रारम्भ की दशा में जैसे ही कुछ सूखे हुए कीटग्रस्त पौधे दिखाई पड़े वैसे ही उखाड़कर उन्हें जलाकर नष्ट कर देना चाहिए।
रासायनिक विधियाॅः
यदि 10 पौधों में एक सूंड़ी दिखाई पडे़ तो रासायनिक विधि से नियंत्रण करना चाहिए। इस कीट की रोकथाम हेतु बुवाई से पूर्व 10 प्रतिशत फोरेट ग्रेन्यूल 5 किग्रा0 अथवा 3 प्रतिशत कार्बोफ्यूरान ग्रेन्यूल 15 किग्रा0 प्रति हे0 की दर से प्रयोग करें। खड़ी फसल मंे प्रकोप होने पर इसकी रोकथाम के लिए डायमिथोेयेट 30 ई0सी0 1.00 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस प्रकार छिड़काव करना चाहिए कि पूरा पौधा ऊपर से नीचे तक पूरी तरह भीग जाये।
जैव जीव रसायन का प्रयोग- बिवेरिया बैसियाना का छिडकाव 2500ग्रा. प्रति हे0 की दर से करें।
2. पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीटः यह कीट पत्तियों में सुरंग बनाता है। इसकी सूड़ी व प्यूपा पत्ती के अन्दर नाली सुरंग) बनाकर अन्दर रहता है।
नुकसान करने का तरीकाः सूड़ी पत्तियों के दोनों तरफ से पत्ती के अन्दर सुरंग बनाकर ऊतकों को खाती हैं, जिसके कारण पत्तियों में कई सुरंगें बन जाती है जिसके कारण फोटोसेन्थिसिस प्रभावित होती है तथा कभी-कभी 90 प्रतिशत पत्तियाॅ कीटग्रस्त हो जाती हैं। इस कीट का प्रकोप निचली पत्तियों में अधिक पाया जाता है।
3. फलीछेदक कीटः इस कीट द्वारा साधारणतया 20 से 30 प्रतिशत तक हानि होती है लेकिन जब इसका प्रकोप अधिक होता है तो 80 से 90 प्रतिशत तक फसल नष्ट हो जाती है।
पक्षी आश्रय का प्रयोगः पृकति के पक्षी इसके कीट नियंत्रण में विशेष योगदान रखते हैं, ऐसे पक्षियों को उनके बैठने के लिये खेत में आश्रय प्रदान करना चाहिए। यह आश्रय सूखी टहनियों बांस के खपच्चों आदि के रूप में प्रयोग करना चाहिए।
मटर के प्रमुख रोग तथा नियंत्रण
4. बुकनी रोग: पत्तियों, फलियों तथा तने पर सफेद चूर्ण सा फैलता है और बाद में पत्तियां आदि काली होकर मरने लगती है। यह रोग अधिकांशतः फरवरी-मार्च के महीने में प्रारम्भ होता है तथा देर से बोई गई फसल में इसका प्रकोप तेजी से फैलता है।
रोग प्रबन्धन हेतु घुलनशील गंधक 3 किग्रा0 या डाइनोकेप 48 ई0सी0 600 मि0ली0 या कार्बान्डाजिम 500 ग्राम या ट्राइडोमार्फ 80 ई0सी0 500 मि0ली0 प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। ये छिड़काव 10-12 दिन के अन्तराल पर कम से कम दो बार अवश्य करना चाहिए।

5. रतुआ रोग व तुलासिता रोग: रतुआ रोग में पत्तियां तथा तने पर नारंगी रंग के फफोले पाये जाते है। कभी-कभी यह फफोले आपस में मिलकर पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं। तुलासितारोग में पत्तियों के ऊपरी सतह पर प्रारम्भिक अवस्था में पीले रंग के धब्बे दिखायी देते है जिसके नीचे सफेद रूई के समान फफॅूंदी की वृद्धि दिखायी देती है।

रतुआ व तुलासिता रोग के प्रबन्धन हेतु मैंकोजेब 2 कि0ग्रा0 अथवा ट्राइडोमार्फ 500 मि0ली0 या थायोफिनेट मिथाइल 70 प्रतिशत का 0.15 प्रतिशत प्रति हे0 की दर से आवश्यक पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।

छोटा घूस चूूहा:
छोटा घूस चूहा चने की फसल को नुकसान पहुॅचाने वाले हानिकारक जीवों की प्रजातियों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। यह मोटा, तगड़ा और 300 ग्राम वजन का होता है। इसकी पीठ के ऊपरी हिस्से का रंग गहरा भूरा होता है और पूंछ अपेक्षाकृत छोटी होती है। यह वर्ष भर प्रजनन करता है और चने की फसल और आस-पास की गेहूॅ की फसल के पकने के समय इसकी गतिविधि चरमसीमा पर अर्थात् तेज पहुॅच जाती है। इसके एक बार में बच्चे पैदा करने की संख्या 1 से 11 तक होती है और बच्चे पैदा करने की वार्षिक दर 50 बच्चे प्रति वर्ष होती है। यदि 25 सक्रिय बिलों की संख्या प्रति हैक्टेयर है तो आर्थिक सीमा के ऊपर नुकसान पहुॅचा रहे हैं।
प्रबन्घन
1. चूहों के प्राकृतिक शत्रुओं जैसे की सांप, मोर, उल्लू, बिल्लियां इत्यादि को संरक्षण देना चाहिए।
2. फसल के शुरूआत से ही चहों के नियंत्रण के बारे में सोचना चाहिए। अगर पिछली फसल में चूहों से ज्यादा नुकसान नही हुआ है तो भी खेत की निगरानी बराबर करना चाहिए। क्योंकि चूहों से हुए नुकसान का जब तक पता चलता है तब तक फसल को भारी नुकसान हो जाता है।
3. खेत में कई जगह खाली हाड़ी को भूमि की सतह के बराबर गाड़ दें। हाड़ी में आधा पानी भर दें उस पर धान की भूसी बिखेर दें तत्पश्चात् लाई फेला दें। चूहें लाई का भण्डार समझकर कूद पड़ेंगे और फिर निकल नहीं सकेंगे।